- बाल विकास और मनोविज्ञान
- विकास एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक
- बालकों का मानसिक स्वाथ्य एवं व्यव्हार सम्बंधित समस्याएँ
- बाल विकास में पोषण एवं आहार
- भोज्य पदार्थों का संग्रहीकरण एवं संरक्षण
- व्यक्तिगत एवं शालेय स्वच्छता
- बाल विकास में सामुदायिक शिक्षा और स्वास्थ्य
- बाल विकास में मानव शरीर के विभिन्न अंग, तंत्र और कार्यिकी
- शारीरिक शिक्षा
- योग शिक्षा
1. बाल विकास और मनोविज्ञान
● विकास का जीवन में अत्यंत महत्व है, विकास की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।
● बालक के जन्म से पूर्व एवं पश्चात जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं वे सभी विकास की प्रक्रिया का ही अंग है।
● विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत बालक के विकास की मुख्य तीन अवस्थाएं मानी जाती हैं। शैशवावस्था, बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था।
● बालक के विकास की प्रक्रिया का ज्ञान शिक्षक माता – पिता एवं समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है। ताकि वे बालक समुचित विकास में अपना योगदान दे सकें।
● शैशवावस्था – बालक के विकास का निर्माण काल भी कहा जाता है। यह जन्म से पांच वर्ष तक मानी जाती है। इसी अवस्था में बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है।
● शैशवावस्था के पश्चात् बालक की बाल्यावस्था प्रारंभ हो जाती है। इसे विकास की अवस्था का अनोखा काल भी कहते हैं। इसको 6 से 12 वर्ष तक माना गया है।
● किशोरावस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष मानी जाती है। इसे विकास की अवस्थाएं में सबसे कठिन काल के नाम से जाना जाता है। इसमें बालक में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक परिवर्तन बहुत तेजी से होते हैं।
● किशोरावस्था को वय सन्धि काल से भी जाना जाता है। इसमें बालक में सन्तानोत्पत्ति की क्षमता का विकास होता है।
● बालक के जन्म के पश्चात् से विकास की प्रक्रिया के अन्तर्गत विभिन्न अवस्थाओं में शिक्षा का स्वरूप सुनिश्चित किया जाना अत्यंत आवश्यक है। बालक की भिन्नाओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा की व्यवस्था उपलब्ध कराना शिक्षक, अभिभावक एवं समाज का दायित्व होता है।
2. विकास एवं विकास को प्रभावित करने वाले करक
● किसी भी प्राणी के विकास की प्रक्रिया का आरंभ गर्भाधान के बाद ही प्रांरभ हो जाता है। जो कि जीवन पर्यन्त चलता रहता है। यह एक सार्वभौमिक है।
● विकास केवल शारीरिक वृद्धि को ही नहीं बताता वरन् प्राणी में होने वाले सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक संवेगात्मक विकास भी सम्मिलित होते हैं। इसके अतिरिक्त भाषायी एवं मूल्य परक विकास भी इसी प्रक्रिया का अंग है।
● विकास की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तन समान नहीं होते हैं भिन्न – भिन्न अवस्थाओं में यह प्रक्रिया भिन्न – भिन्न होती है।
● प्रारंभिक अवस्था में विकास की गति तेज होती है। बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में और भी तेज हो जाती है, किन्तु किशोरावस्था के बाद मन्द हो जाती है।
● विकास को परिवर्तनों की श्रृंखला कहा जाता है। इन परिवर्तनों में कोई न कोई क्रम अवश्य होता है, आगे होने वाला परिवर्तन पूर्व परिवर्तन पर आधारित होता है।
● बालक के शारीरिक विकास के अन्तर्गत भार, लम्बाई, सिर, हड्डियों, दांत आदि का विकास होता है और यह विकास वंशानुक्रम, वातावरण, भोजन, दिनचर्या, विश्राम, प्रेम सुरक्षा एवं खेल जैसे तत्वों से प्रभावित होते हैं।
● शारीरिक विकास के अतिरिक्त मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक विकास की प्रक्रिया भी साथ साथ चलती है। यह सभी बालकों में भिन्न होती है।
● भाषीय एवं मूल्यपरक विकास विभिन्न अवस्थाओं के साथ बालक में दिखाई देते हैं। प्रत्येक अवस्था में विकास दूसरे से भिन्न होता है।
3. बालकों का मानसिक स्वाथ्य एवं व्यव्हार सम्बंधित समस्याएँ
● अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के द्वारा व्यक्ति अपनी क्षमताओं के अनुसार संतुष्ट रूप में जीवन की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए परस्पर तथा समाज के अन्य सदस्यो के साथ समायोजन बनाये रख सकते हैं।
● बालक के स्वास्थ्य पर घर का प्रभाव पड़ता है। परिवार का विघटन, माता पिता का असंगत व्यवहार, निर्धनता, उच्च आदर्श, घर का सख्त अनुशासन, परिवार में तनाव आदि घरेलु कारण है, जो बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
● विद्यालय का तनावपूर्ण वातावरण, अध्यापक का तानाशाह व्यवहार, परीक्षा प्रणाली, अनुचित पाठयक्रम आदि बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
● संवेगात्मक सुरक्षा, अच्छे शरीर, मित्रों का होना, आत्मअभिव्यक्ति, आत्मविश्वास, साहसपूर्ण कार्य, बालकेन्द्रित शिक्षण विधियां, बालकेन्द्रित पाठयक्रम, बालकों को योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार शैक्षिक तथा व्यावसायिक निदेशन, अध्यापक का निष्पक्ष व्यवहार बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करते हैं।
● भय, अँगूठा चूसना आदि शैशवकाल की समस्यायें है।
● कपड़ों में मलमूत्र करना, क्रोध करना, चोरी करना, झूठ बोलना आदि बाल्यावस्था की व्यवहारगत समस्यायें हैं।
● आवारा घूमना, मुँह से नाखून काटना, हकलाना, यौन विकृति, धूम्रपान आदि किशोरवस्था की समस्यायें हैं।
● समस्यात्मक व्यवहारों का सुधार संभव है। प्रेमसहानुभूति पूर्ण व्यवहार, आवश्यतानुसार दण्ड पुरस्कार, धर्म नैतिकता की शिक्षा, प्रोत्साहन, स्वस्थ मनोरंजन आदि के द्वारा बच्चो के व्यवहार में परिवर्तन कर सकते है।
4. बाल विकास में पोषण एवं आहार
● आहार को शरीर में आत्मसात होकर शक्ति का स्त्रोत बनाना पोषण कहलाता है।
● पोषक तत्व छह है : प्रोटीन, कार्बोहाड्रेट्स, वसा, प्रोटीन, लवण और जल।
● पोषक तत्व शरीर निर्माण, उतकों की मरम्मत करने में, शरीर की ऊर्जा प्रदान करने में तथा शरीर को रोगों से लड़ने में मदद करते है।
● संतुलित आहार वह भोजन होता है जिसमें भोजन के समस्त पोष्टिक तत्व व्यक्ति विशेष के शरीर की मांग के अनुसार उचित मात्रा में उचित साधनों से प्राप्त हों।
● कुपोषण वह स्थिति है जहाँ कुछ पौष्टिक तत्व कम तो कुछ अधिक होते है।
● भोजन जल द्वारा, वाष्प द्वारा, चिकनाई द्वारा और वायु द्वारा पकाया जाता है।
● खनिज लवण, विटामिन बी, विटामिन सी, पानी में घुलनशील होने से खाद्य पदार्थों के धोने से नष्ट हो जाते है। काबोहाइड्रेड पककर सुपाच्य हो जाता है।
5. भोज्य पदार्थों का संग्रहीकरण एवं संरक्षण
● हरी सब्जियां प्रकृति से क्षारीय होती है। तने व जड़ों वाले भोज्यों में प्रोटीन तथा खनिजों की अधिकता होती है।
● भोज्य पदार्थ संरक्षण की प्रमुख पांच, विधियां प्रशीतन, निर्जलीकरण, उष्णता द्वारा, किरणीयन द्वारा, रासयनिक पदार्थों द्वारा।
● प्रशीतन विधि में रेफ्रीजरेटर, कोल्ड स्टोरेज तथा चिल स्टोरेज का प्रयोग किया जाता है।
● मिलावट करने से पौष्टिकता कम हो जाती है या नष्ट हो जाती है, मिलावट करने से भोज्य पदार्थों का भार अधिक हो जाता है जिससे लाभ का प्रतिशत बढ़ जाता है।
● अनाज तथा मोटे अनाज में कार्बोहाइड्रेट अधिक पाया जाता है जबकि दालों में प्रोटीन अधिक होता है। सूखे मेंवे में वसा अधिक होता है।
● दूध को सर्वोच्च आहार माना गया है इसमें वसा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, व खनिज उचित मात्रा में होते है।
● मांसाहारी लोगों के लिए अण्डा पूर्ण आहार माना गया है।
● मांस जीवों से प्राप्त होने वाला भोज्य पदार्थ है यह अम्लीय होता है।
6. व्यक्तिगत एवं शालेय स्वच्छता
● पाठशाला परिसर एंव कक्षों की स्वच्छता के लिये शिक्षक छात्र समिति गठित की जानी चाहिये।
● विद्यालय में समय – समय पर छात्रों के स्वास्थ्य का परीक्षण करना चाहिये। स्वास्थ्य रिपोर्ट विस्तार से लिखी जानी चाहिये।
● मानव जीवन में व्यक्तिगत स्वच्छता आवश्यक एंव महत्वपूर्ण है। इसके अभाव में छात्र की कार्यक्षमता प्रभावित होती है एंव उसमें हीनभावना विकसित होती है।
● स्वास्थ्य को उत्तम रखने के लिये विद्यार्थियो में कुछ अच्छी आदतों को विकसित किया जाना चाहिये जैसे – शरीर को स्वच्छ रखना, त्वचा, केश, ऑख, कान, दॉतो, नाखूनों की नियमित स्वच्छता, शौच सम्बन्धी आदतें आदि।
● पीने के लिये शुद्ध एंव मृदु पानी की व्यवस्था होनी चाहिये। पीने का पानी ढंककर रखना चाहिये। पानी संग्रह किये जाने वाले बर्तन एंव टंकियां स्वच्छ होने चाहिये।
7. बाल विकास में सामुदायिक शिक्षा और स्वास्थ्य
◆ सामुदायिक स्वास्थ्य से अभिप्राय व्यक्ति एवं समुदाय में अच्छी आदतों और दृष्टिकोणों का निर्माण किया जाना है। सामुदायिक स्वास्थ्य का क्षेत्र बहुत व्यापक है। इसमें स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान, जन स्वास्थ्य सेवाएं, भौतिक, जैविक, सामाजिक और सांस्कृतिक पर्यावरण, व्यक्ति एवं समुदाय की स्वास्थ्य संबंधी आदतें, वंशानुक्रम आदि सम्मिलित है।
● नशीले पदार्थ जैसे बीड़ी, सिगरेट, तम्बाखू, शराब, ताड़ी, भांग – गाँजा, चरस, अफीम, स्मैक आदि व्यक्तिगत एवं सामुदायिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत हानिकारक है।
● टीकाकरण द्वारा शरीर में रोग प्रतिकारक क्षमता बढ़ायी जाती है, ताकि बीमारियों के संक्रमण को रोका जा सके। जैसे टायफाइड, चेचक, खसरा, पोलियो, डिप्थीरिया आदि।
● संक्रामक रोग वह है जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है। • रोगी व्यक्ति के संसर्ग में आने से अथवा रोग के जीवाणु विभिन्न माध्यमों से संक्रामक रोग फैलाते हैं।
8. बाल विकास में मानव शरीर के विभिन्न अंग, तंत्र और कार्यिकी
● शरीर का बाहरी स्तर अध्यावरण कहलाता है तथा इसे बाहरी त्वचा तथा स्तर को इससे जुडी रचनाओं सहित अध्यवणीय तंत्र कहते हैं।
● कंकाल तंत्र का कार्य शरीर का आकार बनाए रखना शरीर को मजबूती प्रदान करना, कोमल अंगों की सुरक्षा करना है।
● पेशीय तंत्र का कार्य शरीर को गतिशील बनाना है।
● मनुष्य में विकसित पाचन तंत्र पाया जाता है जिसके लिए आहार नाल तथा पाचन ग्रंथियां पाई जाती है।
● श्वसन के दो चरण होते हैं बाह्य श्वसन और आंतरिक श्वसन।
● रक्त परिसंचरण तंत्र, रक्त, हृदय बाहिकाएं एवं कोशिकाओं से मिलकर बनता है।
● शरीर से अपशिष्ट पदार्थों को हटाने के प्रक्रम को उत्सर्जन कहते है।
● सभी तरह के ज्ञान संवेदनाओं को अनुभव कराने एवं सोचने विचारने की क्षमता देने का कार्य तंत्रिका तंत्र का होता है।
● अपने समान संतान उत्पन्न करने वाला अंग जनन तंत्र कहलाता है।
● मनुष्य में स्त्रावी तंत्र तीन प्रकार का होता है –
1 . बर्हि स्त्रावी तंत्र 2 . अन्तः स्त्रावी तंत्र
3 . मिश्रित तंत्र
9. शारीरिक शिक्षा
● शारीरिक शिक्षा उत्तम नागरिकता या उत्तम स्वास्थ्य की उन्नति का एक महत्वपूर्ण साधन है।
● खेलकूद व्यक्ति को अनुशासनबद्ध बनाते हैं।
● खेलकूद का शैक्षणिक महत्व है, इसलिए इसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है।
● शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य शरीर और मन को स्वस्थ रखना है।
● शारीरिक कार्यकलाप कई प्रकार के होते है जैसे जलीय क्रियाएँ, नैसर्गिक क्रियाएँ, जिमनास्टिक, एथलेटिक्स आदि।
● बालक अपनी आयु, लिंग व रूचि के अनुसार शारीरिक कार्यकलापों का चुनाव करते हैं।
● विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के लिए शारीरिक शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो उनकी विशेष आवश्यकताओं को पूरा कर सके।
● शारीरिक शिक्षा में व्यायाम का भी विशेष महत्व है।
10. योग शिक्षा
● कुशलता से कार्य करने का नाम ही योग है। योग का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थियों के शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, बौद्धिक, चारित्रिक, नैतिक इत्यादि सभी पक्षों का समग्र विकास करना है।
● आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में नैतिक व सामाजिक मूल्यों का पतन अति भौतिकवादिता, तनाव इत्यादि के कारण मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक रूप से अस्वस्थ होता जा रहा है। ऐसे समय में योग की अत्यंत आवश्यकता है।
● भारतीय संस्कृति में योग की परम्परा प्राचीन काल से रही है। भारतीय ऋषियों – मुनियों ने अनेक प्रयोगों के द्वारा इसे विकसित किया है। योगासनों के द्वारा मनुष्य निरोग तथा दीर्घजीवी होता है। अतः विद्यालयों में विद्यार्थियों को इनका नियमित अभ्यास करवाना चाहिए।
● योगासनों का अभ्यास स्वास्थ्य लाभ एवं उपचार हेतु किया जा सकता है। जबकि व्यायामों का प्रभाव केवल शरीर की माँसपेशियों एवं हड्डियों पर ही होता है। बीमार या दुर्बल व्यक्ति इनका अभ्यास नहीं कर सकते।
● पवनमुक्तासन के अंतर्गत कुछ सरल अभ्यास करवाये जाते हैं, इनका अभ्यासकर्ता पर बड़ा सूक्ष्म और अच्छा लाभदायक प्रभाव पड़ता है। अभ्यास के इस समूह को सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं।
● यम, नियम, आसन, प्राणयाम तथा प्रत्याहार योग के बहिरंग कहलाते हैं।
● ध्यान, धारणा तथा समाधि योग के अंतरंग सोपान कहलाते हैं।
● सूर्य को नमस्कार करने की विधि को सूर्य नमस्कार कहते हैं।
● सूर्य नमस्कार से शरीर लचीला होता है, आलस दूर होता है। स्फूर्ति आती है।
● योगासन हमेशा योग्य गुरू के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए।