प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अनेकों प्रकार का ज्ञान तथा कौशल प्राप्त करता है। इस ज्ञान तथा कौशल में कितनी दक्षता व्यक्ति ने प्राप्त की है, इसका पता उस ज्ञान तथा कौशल के उपलब्धि परीक्षण से ही चलता है।विद्यालय की विभिन्न कक्षाओं में अनेकों प्रकार के छात्र, शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं। समान मानसिक योग्यताओं से सम्पन्न न होने के कारण वे समय की एक ही अवधि में विभिन्न विषयों तथा कुशलताओं में विभिन्न सीमाओं तक प्रगति करते हैं। उनकी इसी प्रगति, प्राप्ति या उपलब्धि का मापन या मूल्यांकन करने के लिए उपलब्धि परीक्षाओं की व्यवस्था की गई है।
उपलब्धि परीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
उपलब्धि परीक्षाएँ वे परीक्षाएँ हैं, जिनकी सहायता से विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों और सिखाई जाने वाली कुशलताओं में छात्रों की सफलता या उपलब्धि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
उपलब्धि परीक्षाओं के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं –
1. प्रेसी, रॉबिन्सन व हॉरक्स के अनुसार :-
उपलब्धि परीक्षाओं का निर्माण मुख्य रूप से छात्रों के सीखने के स्वरूप और सीमा का माप करने के लिए किया जाता है।
2. गैरिसन व अन्य के अनुसार :-
उपलब्धि परीक्षा, बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा का मूल्यांकन करती हैं।
3. थॉर्नडाइक व हेगन के अनुसार :-
जब हम उपलब्धि परीक्षा का प्रयोग करते हैं, तब हम इस बात का निश्चय करना चाहते हैं कि एक विशिष्ट प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त व्यक्ति ने क्या सीखा है।
उपलब्धि परीक्षण की विशेषताएँ
उपलब्धि परीक्षण, ज्ञान तथा कौशल के मापन के लिए होती है, इसलिये विद्यालयों से इसका सीधा सम्बन्ध होता है। इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- उपलब्धि परीक्षण दि हुए ज्ञान तथा कौशल का मापन करता है।
- उपलब्धि परीक्षण द्वारा ज्ञान तथा उपलब्धि की लब्धि ज्ञात की जाती है।
- उपलब्धि परीक्षण में प्रश्नों की रचना उपलब्धि की मात्रा की गणना तथा व्यक्ति की प्रगति की मात्रा का मापन करने के लिए की जाती
- उपलब्धि परीक्षण से वर्तमान प्रगति का पता चलता है।
- विषयों की भिन्नता के अनुसार अलग – अलग परीक्षण बनाये जाते हैं।
- उपलब्धि परीक्षण में अर्जित ज्ञान का मापन उसका साध्य होता है।
- उपलब्धि परीक्षण, व्यक्ति की उपलब्धि की क्षमता का प्रदर्शन करता है।
उपलब्धि परीक्षण का उद्देश्य
साधारणतः वर्ष के अन्त में विभिन्न कक्षाओं के छात्रों के लिए उपलब्धि परीक्षाओं का आयोजन निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है –
- बालकों की उपलब्धि से सामान्य स्तर को निर्धारित करने के लिए किया जाता है।
- बालकों को पढ़ाये जाने वाले विद्यालय – विषयों में उनकी ज्ञान की सीमा का मापन करने के लिए किया जाता है।
- बालकों की विभिन्न विषयों तथा क्रियाओं में वास्तविक स्थिति को ज्ञात करने के लिए किया जाता है।
- बालकों की पढ़ने – लिखने के समान कुशलताओं में गति तथा श्रेष्ठता को निश्चित करने के लिए किया जाता है।
- पाठ्यक्रम के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति की और बालकों की प्रगति की जानकारी करने के लिए किया जाता है।
- बालकों को ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में दिये गए प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है। बालकों की अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को ज्ञात करने तथा उनका निवारण करने के लिए पाठ्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन करने के लिए किया जाता है।
शिक्षक के शिक्षण तथा अध्ययन की सफलता का अनुमान लगाने के लिए किया जाता है।
उपलब्धि परीक्षण के प्रकार
डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार उपलब्धि परीक्षण निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –
- प्रमापित परीक्षण
- शिक्षक – निर्मित परीक्षण
- मौखिक परीक्षण
- निबन्धात्मक परीक्षण
- वस्तुनिष्ठ परीक्षण
प्रमापित परीक्षण
प्रमापित परीक्षण आधुनिक युग की एक देन है। इनके अर्थ को स्पष्ट करते हुए थॉर्नडाइक व हेगम ने कहा है कि प्रमापित परीक्षण का अभिप्राय केवल यह है कि सब छात्र समान निर्देशों और समय की समान सीमाओं के अन्तर्गत समान प्रश्नों और अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। प्रमापित परीक्षणों के कुछ उल्लेखनीय तथ्य निम्नलिखित हैं –
- इनका निर्माण एक विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह द्वारा किया जाता है।
- इनका निर्माण, परीक्षण – निर्माण के निश्चित नियमों तथा सिद्धान्तों के अनुसार किया जाता है।
- इनकानिर्माण विभिन्न कक्षाओं तथा विषयों के लिए किया जाता है। एक कक्षा तथा एक विषय के लिए अनेक प्रकार के परीक्षण होते हैं।
- जिस कक्षा के लिए जिन परीक्षणों का निर्माण किया जाता है, उनको विभिन्न स्थानों पर उसी कक्षा के सैकड़ों – हजारों बालकों पर प्रयोग करके निर्दोष बनाया जाता है या प्रमापित किया जाता है।
- निर्माण के समय इसमें प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर प्रयोग किए जाने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले अनुभवों के आधार पर उनकी संख्या में काफी कमी कर दी जाती है।
- इनमें दिए हुए प्रश्नों को निश्चित निर्देशों के अनुसार निश्चित समय के अन्तर्गत करना पड़ता है। मूल्यांकन या अंक प्रदान करने के लिए भी निर्देश होते हैं।
- इनका प्रकाशन किसी संस्था या व्यापारिक फर्म के द्वारा किया जाता है। जैसे – भारत में सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन, राष्ट्रीय शैक्षणिक एवं प्रशिक्षण परिषद्, जामिया मिलिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इत्यादि ने इनको प्रकाशित किया है।
शिक्षक – निर्मित परीक्षण
शिक्षक – निर्मित परीक्षण, आत्मनिष्ठ तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के होते हैं। सामान्य रूप से शिक्षकों द्वारा सभी विषयों पर परीक्षणों का निर्माण किया जाता है तथा कुछ समय पूर्व तक इन परीक्षणों का रूप आत्मनिष्ठ था। भारत में अब भी इसी प्रकार के परीक्षणों का प्रचलन है, यद्यपि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के निर्माण की दिशा में सक्रिय कदम उठाये जा रहे हैं। सब शिक्षकों में परीक्षणों के लिए प्रश्नों का निर्माण करने की समान योग्यता नहीं होती है। अतः एक ही विषय पर दो | शिक्षकों द्वारा निर्मित प्रश्नों के स्तरों में अन्तर हो सकता है। इसीलिए, शिक्षक निर्मित परीक्षणों को विश्वसनीय नहीं माना जाता है। ऐलिस ने कहा है कि –
शिक्षक – निर्मित परीक्षणों में बधा कम विश्वसनीयता होती है।
प्रमापित एवं शिक्षक – निर्मित परीक्षण की तुलना
थॉर्नडाइक एवं हेगन ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से श्रेष्ठतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए हैं –
- प्रमापित परीक्षण को सम्पूर्ण देश के किसी भी विद्यालय की किसी भी कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण को केवल उसी विद्यालय की किसी विशेष कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
- प्रमापित परीक्षण का निर्माण किसी विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह के द्वारा किया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण का निर्माण अध्यापक के द्वारा अकेले तथा किसी की सहायता के बिना किया जाता है।
- प्रमापित परीक्षण में प्रयोग की जाने वाली परीक्षा – सामग्री का व्यापक रूप में पहले ही परीक्षण कर लिया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में इस प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता है।
- प्रमापित परीक्षण में बहुत कुछ विश्वसनीयता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में कम विश्वसनीयता होती है। इस सम्बन्ध में थॉर्नडाइक व हेगन की सलाह है कि –
प्रमापित परीक्षणों का ही विश्वास किया जाना चाहिए।
कुछ लेखकों ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित कारण प्रस्तुत किए हैं, जो निम्नलिखित हैं –
- प्रमापित परीक्षण के निर्माण के लिए बहत समय तथा धन की आवश्यकता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण के लिए अति अल्प समय तथा धन काफी है।
- प्रमापित परीक्षण इस बात का मूल्यांकन नहीं कर सकता है कि कक्षा में क्या पढ़ाया जा सकता था ? क्या पढ़ाया जाना चाहिए था ? लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन दोनों बातों का मूल्यांकन कर सकता है।
- प्रमापित परीक्षण, शिक्षक के शैक्षिक लक्ष्यों का अनुमान लगाने में असफल रहता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन लक्ष्यों का मापन कर सकता है।
- प्रमापित परीक्षण, अध्यापक की शैक्षिक सफलता तथा छात्रों की वास्तविक प्रगति का मूल्यांकन करने में सफल नहीं होता है, लेकिन शिक्षण – निर्मित परीक्षण देते हैं।
अतः उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप अनेक लेखक प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर स्थान देते हैं। आज जिन परिस्थितियों में हमारे विद्यालय कार्य कर रहे हैं, उन पर विचार करके तो यही कहना उचित जान पड़ता है कि शिक्षक – निर्मित परीक्षणों का प्रयोग ही अधिक लाभदायक है। प्रमापित परीक्षणों के प्रयोग में तीन विशेष आपत्तियाँ हैं–
- उनको काफी धन व्यय करके ही प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन धन व्यय करने पर भी यह आवश्यक नहीं है कि वे उचित समय पर उपलब्ध हो जाए।
- विद्यालयतथा छात्रों की स्थानीय आवश्यकताओं को केवल शिक्षक निर्मित परीक्षण ही पूरा कर सकते हैं, लेकिन प्रमापित परीक्षण नहीं।
- प्रमापित परीक्षण का भले ही सर्वोत्तम विधि से निर्माण किया गया हो, पर यह आवश्यक नहीं है कि उसमें एक विशेष अध्यापक या एक विशेष विद्यालय के सभी महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों का समावेश हो।
मौखिक परीक्षण
एक समय ऐसा था, जब विद्यालयों तथा उच्च शिक्षा – संस्थाओं में मौखिक परीक्षाओं की प्रधानता थी, लेकिन आधुनिक युग में लिखित परीक्षाओं का प्रचलन होने के कारण इनका महत्त्व बहुत कम हो गया है। फिर भी, प्राथमिक कक्षाओं तथा उच्च कक्षाओं में विज्ञान के विषयों की प्रयोगात्मक परीक्षाओं एवं वायवा के रूप में अब भी इनका अस्तित्व शेष है। मौखिक परीक्षा का मूल्यांकन करते हुए राईटस्टोन ने कहा है कि मौखिक परीक्षा कितनी भी अच्छी क्यों न हो, पर छात्रों को अंक प्रदान करने के लिए एक निम्न साधन है। इसका महत्त्व केवल निदानात्मक साधन के रूप में और उन परिस्थितियों में है, जिनमें लिखित परीक्षाओं का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
निबन्धात्मक परीक्षण
निबन्धात्मक परीक्षण, सर्वाधिक प्रचलित उपलब्धि परीक्षण हैं। इन्हें शिक्षक बनाता है। इनमें प्रश्नों का उत्तर निबन्ध के रूप में देना पड़ता है, इसीलिए इनको निबन्धात्मक परीक्षण कहा गया हैं। हमारे देश में मात्र निबन्धात्मक परीक्षा का ही प्रचलन है। इस परीक्षा – प्रणाली में छात्रों को कुछ प्रश्न दे दिये जाते हैं, जिनके उत्तर उनको निर्धारित समय में लिखने पड़ते हैं।
निबन्धात्मक परीक्षण के गुण या विशेषताएँ
निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली में उत्तम गुणों का इतनी बहुतायत है कि वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी इसकी लोकप्रियता में कोई विशेष न्यूनता दिखाई नहीं पड़ती है। इस प्रणाली के उल्लेखनीय गुण निम्नलिखित है –
1. यह सब विषयों के लिए उपयोगी है
यह प्रणाली विद्यालय के सब विषयों के लिए उपयोगी है। इस तरह के एक भी विषय का संकेत नहीं दिया जा सकता है, जिसके लिए इस प्रणाली का लाभप्रद ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सके।
2. इसमें उत्तर एवं भाव प्रकाशन की स्वतन्त्रता है
यह प्रणाली बालकों को प्रश्नों के उत्तर देने तथा उनके सम्बन्ध में अपने भावों का प्रकाशन करने की पूरी स्वतन्त्रता प्रदान करती है। इन दोनों बातों में उनके ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता है।
3. यह शिक्षक की सुगमता प्रदान करती है
यह प्रणाली शिक्षक के लिए अत्यधिक सुगम होती है, क्योंकि वह प्रश्नों की रचना थोड़े ही समय में तथा बिना किसी विशेष प्रयास के कर सकता है। आवश्यकता पड़ने पर वह उनको बोल सकता है या श्यामपट्ट पर लिख भी सकता है।
4. यह बालकों को सुगमता प्रदान करती है
यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि इसमें ऐसे कोई विशेष निर्देश नहीं होते हैं, जिनको समझने में उनको किसी भी प्रकार की कठिनाई का अनुभव हो।
5 . यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है
इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।
6. यह बालकों की विभिन्न योग्यताओं की परीक्षा करती है
इस परीक्षा का प्रयोग करके बालकों की लगभग सभी प्रकार की योग्यताओं की परीक्षा ली जा सकती है, जैसे – विचार – संगठन, विवेचन तथा अभिव्यक्ति, सम्बन्ध चिंतन एवं तार्किक लेखन इत्यादि।
7. यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है
इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।
8. यह प्रणाली बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान कराती है
यह प्रणाली, शिक्षक को बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान प्रदान करती है। वह उनके उत्तरों को पढ़कर उनसे सम्बन्धित विषयों में उपलब्धियों का सही ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
निबन्धात्मक परीक्षण के दोष
आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञान ने निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के अनेक दोषों पर प्रकाश डालकर, उसकी अनुपयुक्तता प्रमाणित करने का प्रयास किया है। इनमें से मुख्य दोष निम्नलिखित हैं –
1. इसमें अंकों में विविधता होती है
इस प्रणाली में प्रदान किए जाने वाले अंकों में विविधता पाई जाती है। इस सम्बन्ध में अनेकों अध्ययन किए गए हैं। उदाहरणार्थ, स्टार्च एवं इलियट ने बताया है कि जब 142 शिक्षकों द्वारा अंग्रेजी की उत्तर – पुस्तिकाओं की जाँच की गई, तो उनके द्वारा प्रदान किए गए अंक 50 और 95 के बीच में ही थे।
2. इसमें विश्वसनीयता का अभाव होता है
इस प्रणाली में जो अंक प्रदान किए जाते हैं, उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि अगर एक छात्र की एक ही उत्तर – पुस्तिका को दो परीक्षक जाँचते हैं, या एक ही शिक्षक कुछ समय व्यतीत होने के बाद जाँचता है, तो अंकों में अन्तर मिलता है। परीक्षा को विश्वसनीय तभी कहा जा सकता है, जब छात्र को अपने उत्तरों के लिए हमेशा समान अंक प्राप्त हो। निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली को इस दृष्टिकोण से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता है।
3. यह सीमित प्रतिनिधित्व करती है
इस प्रणाली का सबसे प्रिय दोष यह है कि वह विषय का सीमित प्रतिनिधित्व करती है। इसका अर्थ यह है कि इसमें सम्पूर्ण विषय से सम्बन्धित प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। विषय के अनेक भाग होते हैं, जिस पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा जाता है। प्रणाली की इस निर्बलता से लाभ उठाकर छात्र थोड़े से प्रश्नों का चुनाव करके रट लेते हैं। इस निर्बलता का मुख्य कारण है – प्रश्नों की सीमित सीमा। पाँच या दस प्रश्न सम्पूर्ण विषय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं।
4. वैधता का अभाव होता है :-
इस प्रणाली में वैधता का स्पष्ट अभाव होता है । वैधता का अर्थ है कि परीक्षा उन गुणों, तथ्यों तथा कुशलताओं की जाँच करे, जिसकी जाँच करना उसका ध्येय होता है । अनेक अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि निबन्धात्मक परीक्षा वास्तव में विषय के ज्ञान की जाँच न करके, बालकों की भाषा, लेखन – शक्ति इत्यादि की जाँच करती है ।
5. इसमें भविष्यवाणी का अभाव होता है :-
इस प्रणाली के परिणामों के आधार पर छात्रों के भविष्य के सम्बन्ध में किसी प्रकार का निश्चित निर्णय नहीं दिया जा सकता है । इसका कारण यह है कि अंकों की प्राप्ति रटने की शक्ति, लेखन – शक्ति, अभिव्यंजना, सुलेख, उपयुक्त भाषा एवं संयोग पर निर्भर रहती है ।
6. इसमें आत्मनिष्ठता होती है :-
इस प्रणाली में आत्मनिष्ठता की प्रधानता पाई जाती है, जबकि अच्छे परीक्षण में वस्तुनिष्ठता का होना आवश्यक होता है । इसमें उत्तरों के अंकन में परीक्षक के विचारों, धारणाओं, मानसिक स्तर, मनोदशा, अभिवृत्तियाँ इत्यादि का बहुत प्रभाव पड़ता है । इसमें उत्तर – पुस्तिकाओं के अंकन के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के समान कोई उत्तर – तालिका नहीं होती है, जिसको आधार बनाकर सभी परीक्षक, उत्तर – पुस्तिकाओं का अंकन कर सकें । कुछ परीक्षक सहृदय होने के कारण अधिक अंक प्रदान करते हैं, कुछ कठोर होने के कारण कम, कुछ आलसी तथा लापरवाह होने के कारण उत्तरों को पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि अव्यवस्थिति ढंग से अंक प्रदान करते हैं । इन सब कारणों के फलस्वरूप इस प्रणाली में आत्मनिष्ठा की मात्रा अधिक मिलती है ।
7. इसमें अंकन में अधिक समय लगता है :-
इस प्रणाली में छात्रों द्वारा दिए जाने वाले उत्तर काफी लम्बे होते हैं । उनको अच्छी तरह से पढ़कर ही उनका उचित ढंग से मूल्यांकन किया जा सकता है । इसके लिए न केवल अधिक समय और अधिक शक्ति की भी आवश्यकता है । स्टालनकर ने कहा है कि –
अच्छी तरह से लिखे गए निबन्धात्मक प्रश्न का ठीक मूल्यांकन दीर्घकालीन और कठिन कार्य है और इसे उचित प्रकार से करने के लिए बुद्धि, परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता है ।
निबन्धात्मक परीक्षाएँ के विषय में ऐलिस का मत है कि –
छात्रों को मौलिकता का अवसर देती हैं और उनकी तर्क शक्ति की जाँच करने के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की अपेक्षा इनका प्रयोग साधारणतः अधिक सरल है
वस्तुनिष्ठ परीक्षण
वस्तुनिष्ठ परीक्षण वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का विकास करने का सराहनीय कार्य जे . एम . राइस का है। उसने इन परीक्षणों की रचना, प्रयोग और अंकन इत्यादि के सम्बन्ध में अनेकों मौलिक कार्य किए हैं। उसके कार्यों से प्रोत्साहित होकर स्टार्च व इलियट ने अनेक अध्ययन करके इन परीक्षणों की उपयोगिता को सिद्ध किया है। फलस्वरूप इनके प्रयोग पर अधिकाधिक बल दिया जाने लगा है।वस्तुनिष्ठ परीक्षा, वह परीक्षा है, जिनमें विभिन्न परीक्षक स्वतन्त्रापूर्वक कार्य करने के बाद अंकों के सम्बन्ध में एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं या समान उत्तरों के लिए समान अंक प्रदान करते हैं। गुड का कहना है कि –
वस्तुनिष्ठ परीक्षा साधारणतः सत्य – असत्य उत्तर, बहसंख्यक चुनाव, मिलान या पूरक प्रकार के प्रश्नों पर आधारित होती है, जिसके सही उत्तरों का तालिका की सहायता से अंकन किया जाता है। यदि कोई तालिका के विपरीत होता है, जो उसे गलत माना जाता है
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकार
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं –
- सरल पुनः स्मरण टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को प्रश्नों के उत्तर स्वयं स्मरण करके लिखने पड़ते हैं।
- सत्य – असत्य टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को सत्य या असत्य में उत्तर देने पड़ते हैं।
- बहुसंख्यक चुनाव टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दिए हुए अनेक उत्तरों में से सही उत्तर का चुनाव करना पड़ता है।
- मिलान टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दो पदों में मिलान करके कोष्ठक में सही पद लिखना पड़ता है।
- पूरक टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करनी पड़ती है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण तथा विशेषताएँ
वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली अपनी विशेषताओं के कारण ही प्रचलन में दिन – प्रतिदिन लगातार वृद्धि होती चली जा रही है। वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली विशेषताएं निम्नलिखित हैं –
- इसमें वैधता होती है :- वैधता इस प्रणाली का एक मुख्य गुण है। यह उसी निर्धारित योग्यता का माप करती है, जिसके लिए इसका निर्माण किया जाता है।
- इसमें वस्तुनिष्ठता होती है :- इस प्रणाली में वस्तुनिष्ठता इतनी अधिक होती है कि अंक प्रदान करने के समय परीक्षक के व्यक्तिगत निर्णय, विचार, धारणा, मानसिक स्तर, मनोदशा इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है।
- इसमें विश्वसनीयता होती है :- इस प्रणाली में विश्वसनीयता अपनी चरम सीमा पर पाई जाती है। इसका कारण यह है कि चाहे कोई भी व्यक्ति अंक प्रदान करे, उनमें किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं होता है।
- इसमें विभेदीकरण होता है :- इस प्रणाली की एक मुख्य विशेषता है – इसकी विभेदीकरण करने की क्षमता। इसका अर्थ यह है कि प्रतिभाशाली तथा मन्दबुद्धि छात्रों के भेद को स्पष्ट कर देती है।
- इसमें विस्तृत प्रतिनिधित्व होता है :- इस प्रणाली में प्रत्येक प्रश्न – पत्र में प्रश्नों की संख्या इतनी अधिक होती है कि विषय का कोई भी अंक अछूता नहीं रह जाता है। इस तरह यह प्रणाली विषय का विस्तृत प्रतिनिधित्व करती हैं
- इसमें धन की बचत होती है :- इस प्रणाली में इतना कम लिखना पड़ता है कि साधारणतया दो – तीन पृष्ठों की उत्तर – पुस्तिकाएँ काफी होती हैं।
- इसमें समय की बचत होती है :- इस प्रणाली में छात्र कम समय में बहुत से प्रश्नों का उत्तर देते हैं। परीक्षकों को भी उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने में कम समय लगता है।
- इसमें एक संक्षिप्त उत्तर देना पड़ता है :- प्रणाली में एक प्रश्न का केवल एक ही संक्षिप्त उत्तर हो सकता है। अतः छात्रों को अपने उत्तरों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भ्रम नहीं रह सकता है।
- इसमें उत्तर की सरलता होती है :- इस प्रणाली में उत्तर देना बहुत ही आसान होता है। इसका कारण यह है कि छात्र हाँ या नहीं लिखकर सत्य या असत्य में से एक पर निशान लगाकर, एक या दो शब्दों को रेखांकित करके तथा इसी प्रकार के अन्य सरल कार्य करके उत्तर दे सकते हैं।
- इसमें छात्रों को सन्तोष प्राप्त होता है :- इस प्रणाली में छात्रों को ठीक अंक मिलते हैं। इससे उनको न केवल सन्तोष ही प्राप्त होता है, बल्कि उनको अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा भी मिलती है।
- इसमें छात्रों की उत्तर पुस्तिका को जाँचने में कम समय लगता है :- इस प्रणाली में उत्तर – पुस्तिकाओं को जाँचने में इतना कम समय लगता है कि परीक्षण के कुुुछ समय में ही परिणाम घोषित किया जा सकता है। इस तरह यह प्रणाली छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है।
- इसमें अंकों में समानता होती है :- इस प्रणाली में सब छात्रों को सब परीक्षकों से समान अंक प्राप्त होते हैं।
- इसमें अंकन में सरलता होती है :- इस प्रणाली में अंकन, उत्तरों की तालिका की सहायता से किया जाता है। अतः अंकन का कार्य एकदम सरल होता है तथा समय भी कम लगता है।
- इसमें रटने का अन्त हो जाता है :- यह प्रणाली रटने की प्रथा का अन्त करती है, क्योंकि इस प्रणाली में कुछ प्रश्नों के उत्तरों को रट लेने से ही काम नहीं चलता है। अतः छात्र रटने के बजाय विषय – वस्तु को ध्यान से पढ़कर स्मरण करते हैं।
- इसमें ज्ञान की वास्तविक जाँच होती है :- इस प्रणाली में छात्रों को अति संक्षिप्त उत्तर देने पड़ते हैं। अतः वे अपनी अज्ञानता को भाषा के आवरण में नहीं छिपा पाते हैं। इस तरह यह प्रणाली ज्ञान की वास्तविक जाँच करती है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के दोष
परीक्षणों के निरन्तर प्रयोग से इनमें कुछ दोष इस तरह उभर कर सामने आ गए हैं, जिनके कारण अनेकों शिक्षाविद इनको छात्रों के लिए अहितकर समझने लगे हैं। इस प्रकार के कुछ दोष निम्नलिखित हैं–
- यह अनुमान को प्रोत्साहन देता है :- ये परीक्षण, छात्रों में अनुमान लगाने की अवांछनीय प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं। वे बुद्धि का प्रयोग नहीं करके केवल अनुमान से सत्य या असत्य पर चिह्न लगा देते हैं तथा शब्दों को रेखांकित कर देते हैं।
- इसमें भाषा व शैली की दुर्बलता होती है :- इन परीक्षणों का भाषा तथा शैली से कोई प्रयोजन नहीं होता है। अतः छात्र इन बातों की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते हैं। फलस्वरूप, उनकी भाषा तथा शैली हमेशा के लिए दुर्बल हो जाती है।
- इसमें भाव – प्रकाशन की असमर्थता होती है :- ये परीक्षण, छात्रों की अभिव्यंजना – शक्ति का विकास नहीं कर पाते हैं। अतः वे अपने भावों का प्रकाशन करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं।
- इसमें श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है :- इन परीक्षणों द्वारा श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है। जैसे – तर्क, चिन्तन, मौलिक विचार, सृजनात्मक कल्पना तथा विश्लेषणात्मक शक्तियों की जाँच का कोई स्थान नहीं होता है।
- इसमें केवल तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच होती है :- इन परीक्षणों द्वारा केवल तथ्यात्मक ज्ञान पर बल दिया जाता है। अतः इसके अन्तर्गत केवल इसी ज्ञान की जाँच की जा सकती है।
- इसमें विवादग्रस्त तथ्यों एवं समस्याओं की अवहेलना होती है :- साहित्य, इतिहास तथा सामाजिक विज्ञान में अनेकों विवादग्रस्त तथ्य तथा समस्याएँ होती हैं तथा इनको अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों के उत्तर सन्देहपूर्ण नहीं हो सकते हैं। इसलिए इन महत्त्वपूर्ण विवादग्रस्त तथ्यों तथा समस्याओं को हमेशा के लिए छोड़ दिया जाता है।
- इसमें अधिक धन की आवश्यकता होती है वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है :- इन प्रश्नों को बोलना या श्यामपट्ट पर लिखना असम्भव होता है। अतः हर बार इनकी उतनी ही प्रतियाँ छपवानी पड़ती हैं, जितने कि छात्र होते हैं। इसके लिए काफी मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है।
- इसमें शिक्षक पर अत्यधिक भार होता है :- ये परीक्षण, शिक्षक पर अत्यधिक भार डालते हैं। छोटे उत्तरों वाले प्रश्नों को बनाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा इनकी संख्या भी बहुत अधिक होती है। अतः इसका अधिकांश समय इन प्रश्नों की रचना में व्यतीत हो जाता है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का योगदान
स्किनर का विचार है कि अपनी सीमाओं के बावजूद वस्तुनिष्ठ परीक्षणों ने शिक्षा को चार रूपों में अपूर्व योगदान दिया है –• इन परीक्षणों ने छात्रों में वैयक्तिक भेदों की उपस्थिति पर बल देने वाले साधनों के रूप में काम किया है।• इन्होंने छात्रों की शक्तियों तथा उपलब्धियों का अधिक उत्तम वर्गीकरण करने की विधि प्रस्तुत की है।• इन्होंने छात्रों के बारे में शिक्षकों के अति त्वरित, अति संकुचित तथा अति वैयक्तिक निर्णयों पर अंकुश लगा दिया है।• स्किनर ने कहा है कि –
ऐसे परीक्षणों के बिना जिन पर अंक वस्तुनिष्ठ दृष्टि से दिए जाते हैं, बच्चों और युवकों के मानसिक और शैक्षिक विकास पर बहुत सा ऐसा अनुसन्धान नहीं हो पाता, जिसने शिक्षा की प्रक्रिया पर प्रभाव डाला है।