पाठ्यचर्या के द्वारा शिक्षक एवं छात्र दोनों को उचित मार्गदर्शन प्राप्त होता है। पाठ्यक्रम सुधार एवं उसको नवीन बनाने के प्रयास हमेशा होते रहते हैं। पाठ्यक्रम द्वारा ही समाज एवं वर्तमान समय की आकांक्षा को पूर्ण किया जा सकता है, इसलिए समस्त शिक्षा विशेषज्ञ अपने प्रयत्नों के माध्यम से पाठ्यक्रमों में समय-समय पर सुधार करते हैं। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 भी इस पाठ्यक्रम सुधार की महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी कड़ी है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा-2005 का निर्माण
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् की कार्यकारिणी ने 14 एवं 19 जुलाई, 2004 की बैठकों में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या को सुधारने या संशोधित करने का निर्णय लिया।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा-2005 का निर्माण करने वाली समितियों में उच्च शिक्षा संस्थानों के प्रतिनिधि, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् के अकादमिक सदस्य, विद्यालयों के शिक्षक और गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि सदस्यों के रूप में शामिल हए।
राष्ट्र के प्रत्येक क्षेत्र में इसके सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया गया। इसके साथ ही अजमेर, मैसूर, भोपाल, भुवनेश्वर और शिलांग में स्थित परिषद् के क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों में भी क्षेत्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया गया। राज्यों के सचिवों, राज्यों की शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषदों और परीक्षा बोर्ड के सदस्यों से विचार-विमर्श किया गया। ग्रामीण शिक्षकों से सुझाव लेने के लिए एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार-पत्रों में विज्ञापन दिए गए, जिससे लोग नयी पाठ्यचर्या के बारे में अपनी राय दे सकें और बड़ी संख्या में लोगों की प्रतिक्रियाएँ आईं।
संशोधित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज का आरम्भ रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबन्ध सभ्यता और प्रगति के एक उद्धरण से होता है, जिसमें कविगुरु हमें याद दिलाते हैं कि सृजनात्मकता और उदार आनन्द बचपन की कुन्जी है और नासमझ वयस्क संसार द्वारा उनकी विकृति का खतरा है।
अपनी उत्तेजना में वह एक चीज भूल गया, वह तथ्य जो उसे उस वक्त बहुत मामूली लगा था कि इस प्रलोभन में एक ऐसी चीज खो गई जो उसके खिलौने से कहीं श्रेष्ठ थी, एक श्रेष्ठ व पूर्ण बच्चा। उस खिलौने से महज उसका धन व्यक्त होता था, बच्चे की रचनात्मक ऊर्जा नहीं। उसके खेल में न ही बच्चों को आनन्द था न ही साथियों को खुला निमन्त्रण।
– टैगोर
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा-2005 की विशेषताएँ
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा, 2005 की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं –
- शिक्षा बिना बोझ के रिपोर्ट की सूझ के आधार पर पाठ्यचर्या के बोझ को कम करना।
- पाठ्यचर्या सुधार से सुसंगत व्यवस्थागत परिवर्तन करना।
- ऐसे नागरिक वर्ग का निर्माण, जो लोकतान्त्रिक व्यवहारों, मूल्यों के प्रति कटिबद्ध हो, लैंगिक न्याय के प्रति, अनुसूचित जातियों जनजातियों और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की समस्याओं एवं आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हो तथा जिनमें राजनीतिक एवं आर्थिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की क्षमता हो।
- सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ पर विवेचनात्मक परिप्रेक्ष्य को विकसित करने वाली प्रक्रियाओं को पाठयचर्या में स्थान देने की आवश्यकता।
- विद्यार्थियों की सहभागिता के क्षेत्र-अवलोकन, अन्वेषण, विश्लेषणात्मक विमर्श आदि भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितनी कि ज्ञान की विषय-वस्तु।
- विद्यार्थियों के विकास एवं अधिगम के सम्बन्ध में सर्वांगीण दृष्टिकोण।
- कक्षा में सभी विद्यार्थियों के लिए समावेशी वातावरण तैयार करना। ज्ञान निर्माण में विद्यार्थियों की सहभागिता और रचनात्मकता को बढ़ावा।
- प्रयोगात्मक माध्यमों द्वारा सक्रिय शिक्षण।
- अध्यापक और अध्ययन सम्बन्धी हमारी समझ का पुनः अभिमुखीकरण।
- पाठ्यचर्या की प्रक्रियाओं में बच्चों की सोच, जिज्ञासा और प्रश्नों के लिए पर्याप्त स्थान।
- ज्ञान को अनुशासनिक सीमाओं के पार जोड़ते हुए ज्ञान के अन्तर्दृष्टिपूर्ण निर्माण के लिए एक व्यापक ढाँचा प्रदान करना।
- स्थानीय ज्ञान एवं बच्चों के अनुभव पाठ्यपुस्तकों और अध्यापक प्रक्रियाओं के महत्त्वपूर्ण अंग है।
- पर्यावरण सम्बन्धी परियोजनाओं से जुड़े विद्यार्थी ऐसे ज्ञान के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं, जो भारतीय पर्यावरण का एक पारदर्शी एवं सार्वजनिक डाटाबेस तैयार करने में सहायक हो।
- शिक्षा की राष्ट्रीय व्यवस्था को बहुलतावादी समाज में मजबूती प्रदान करना।
- संविधान में उल्लिखित मूल्यों, जैसे-सामाजिक न्याय, समता एवं धर्मनिरपेक्षता पर आधारित पाठ्यचर्या अभ्यास।
- सभी बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करना।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा – 2005 उद्देश्य
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा-2005 का उद्देश्य सामाजिक न्याय और समानता के संवैधानिक मूल्यों पर आधारित एक धर्मनिरपेक्ष, समतामूलक और बहुलतावादी समाज के आदर्श से प्रेरणा लेते हुए इस दस्तावेज में शिक्षा के कुछ व्यापक उद्देश्य चिह्नित किए गए हैं, जो निम्नलिखित हैं –
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी की प्रवृत्ति।
- विचार और कर्म की स्वतन्त्रता।
- दूसरों की भलाई और भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता।
- आर्थिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक बदलाव में योगदान देने के लिए काम करने की क्षमता।
- नई स्थितियों का लचीलेपन और रचनात्मक तरीके से सामना करना।
अगर शिक्षा के लोकतान्त्रिक तरीकों को सुदृढ़ करना है, तो उसे स्कूल में जाने वाली पहली पीढ़ी की उपस्थिति का भी ध्यान रखना ही होगा, जिसका स्कूल में बने रहना उस संविधान संशोधन के चलते अनिवार्य हो गया है जिसने आरम्भिक शिक्षा को हर बच्चे का मौलिक अधिकार बना दिया है। संविधान के इस संशोधन से हम पर यह जिम्मेदारी आ गई है कि हम सारे बच्चों को जाति, धर्म सम्बन्धी अन्तर, लिंग और असमर्थता सम्बन्धी चनौतियों से निरपेक्ष रहते हुए स्वास्थ्य, पोषण और समावेशी स्कूली परिवेश उपलब्ध कराए, जो उन्हें शिक्षा ग्रहण करने में सहायता पहुँचाए तथा उन्हें सशक्त बनाए।