बालक का विकास निश्चित अवस्थाओं में होता है। बाल विकास की प्रत्येक अवस्था की अपनी विशेषताएं और महत्व होता है। प्रत्येक अवस्था के लिए शिक्षा का स्वरूप भी अलग-अलग होता है। यहाँ पर हमने बाल विकास की प्रत्येक अवस्था का महत्व, विशेषताओं और शिक्षा का स्वरूप को बताया है।
- शैशवावस्था
- शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएं
- शैशवावस्था का महत्व
- शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप
- बाल्यावस्था
- बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताएं
- बाल्यावस्था का महत्व
- बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
- किशोरावस्था
- किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएं
- किशोरावस्था का महत्व
- किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप
शैशवावस्था :-
बालक के जन्म के पश्चात् से पाँच वर्ष तक की अवस्था शैशवावस्था कहलाती है। यह अवस्था बालक का निर्माण काल होती है। इसी काल में बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में बालक का जितना अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है, उतना ही अच्छा और उत्तम उसका विकास और जीवन होता है।
जन्म के उपरांत नवजात शिशु के भार, अंगों और गतिविधियों में पांच वर्ष की अवस्था तक परिवर्तन दिखाई देते है। विकास के साथ-साथ इनमें स्थायित्व आने लगता है।
शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएं :-
शैशवावस्था की विशेषताएं नीचे दी गईं है :-
1. शारीरिक विकास में तीव्रता :-
शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षो में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इंद्रियों, आंतरिक अंगों और मांसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है।
2. मानसिक क्रियाओं की तीव्रता :-
शैशवावस्था में शिशु की मानसिक क्रियाओं जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियां कार्य करने लगती हैं।
3. सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता :-
शैशवावस्था में शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्र होती है, और वह अनेक आवश्यक बातों को तुरंत लिख लेता है।
4. कल्पना की सजीवता :-
चार वर्ष के बालक की कल्पना में बहुत सजीवता होती है। वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं का पाता है। फलस्वरूप, वह झूठ बोलने जैसा लगता है।
5. दूसरों पर निर्भरता :-
जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है, उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने क लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है।
6. आत्म प्रेम की भावना :-
शैशवावस्था में शिशु अपने माता, पिता, भाई, बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा किसी और को न मिले यदि और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता हैं, तो उसे उससे ईष्यों होने लगती है।
7. नैतिकता का विकास :-
शैशवावस्था में शिशु में अच्छी और बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द आता है।
8. मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार :-
शैशवावस्था में शिशु का अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृतियां होती हैं, यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुह में रख लेता है।
9. सामाजिक भावना का विकास :-
शैशवावस्था के अन्तिम वर्षो में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। छोटे भाईयों, बहनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 6 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपने वस्तुओं और खिलौनों को दूसरे के साथ साझा करता है।
10. दूसरे बालकों में रूचि या अरुचि :-
शैशवावस्था में शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रूचि या अरूचि हो जाती है। बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रूचि व्यक्त करने लगता है। आरंभ में इस रूचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, लेकिन जल्द हि यह रूचि एवं अरूचि के रूप में प्रकट होने लगता है।
11. संवेगों का प्रदर्शन :-
दो वर्ष की आयु तक बालक में लगभग सभी संवेगों का विकास हौ जाता है। बाल मनोवैज्ञानिकों ने शिशु के मुख्य रूप से चार संवेग माने हैं– भय, क्रोध, प्रेम और पीड़ा।
12. काम-प्रवृत्ति :-
बाल-मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि शैशवावस्था में काम-प्रवृत्ति वहुत प्रबल होती है, पर वयस्को के समान वह उसको व्यक्त नहीं कर पाता है। अपनी माता का स्तनपान करना और यौनागों पर हाथ रखना बालक की काम प्रवृत्ति के सूचक हैं।
13. दोहराने की प्रवृत्ति :-
शैशवावस्था में शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। उसमें शब्दों और गतियों को दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से पाई जाती है।
14. जिज्ञासा की प्रवृत्ति :-
शैशवावस्था में शिशु में जिज्ञासा की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपने खिलौने में तरह-तरह के प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसक भागों को अलग अलग कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह विभिन्न बात्तों और वस्तओं क बारे में “क्यों” और “कैसें” प्रश्न पूछता है।
15. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति :-
शैशवावस्था में शिशु में अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि के कार्यो और व्यवहार का अनुकरण करता है।
16. अकेले व साथ खेलने की प्रवृति :-
शैशवावस्था में शिशु में पहले अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रवृत्ति होती है। बहुत छोटे में शिशु अकेले खेलना पसंद करते हैं। अन्त में वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में ज्यादा रुचि लेता है।
शैशवावस्था का महत्व :-
इस अवस्था में शिशु पूर्ण रूप से माता-पिता पर निर्भर रहता है उसका व्यवहार मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भविष्य के जीवन की आधारशिला रखता है। व्यक्ति को जो कुछ बनना होता है, वह आरंभ के चार-पांच वर्षों में ही बन जाता है।
व्यक्ति में कुल जितना मानसिक विकास होता है, उसका आधा 3 वर्ष की आयु तक में ही हो जाता है। शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की अन्य किसी अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है। शैशवावस्था ही वह आधार है जिस पर बालक के आने वाले जीवन का निर्माण किया जा सकता है, इसलिए शैशवावस्था में शिशु को जितना उत्तम और अच्छा निर्देशन दिया जाएगा उसका उतना ही अच्छा विकास होगा।
मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं के संदर्भ में अनेकों अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला है, कि सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। शैशवावस्था के संबंध में कुछ मनोवैज्ञानिक ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं–
बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि जीवन में इसका क्या स्थान है।
ऐडलर के अनुसार
व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता हैं।
गुडलर के अनुसार
शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप :-
1. शैशवावस्था में शिशु अपने विकास के लिए शान्त, स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण चाहता है । अत: घर और विद्यालय में उसे इस प्रकार का वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए।
2. शैशवावस्था में शिशु अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। माता-पिता और शिक्षक को उसे डांटना या पीटना नहीं चाहिए। उन्हे उसके प्रति सदैव प्रेम, शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए।
3. शैशवावस्था में शिशु सब विषय में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त काना चाहता है, माता-मिता और शिक्षक को उसके प्रश्नों के उत्तर देकर, उसकी जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।
4. शैशवावस्था में शिशु कल्पना की दुनिया में मग्न रहता है, इसलिए उसे ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे वास्तविकता के निकट लाये।
5. शैशवावस्था में शिशु को आत्म निर्भरता से स्वयं सीखने, काम करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। अत: उसको स्वतंत्रता प्रदान करके आत्म-निर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए।
6. शैशवावस्था में शिशु में अनेक निहित गुण होते हैं। अत: उसे इस प्रकार की शिक्षा दो जानी चाहिए जिससे उसमें इन गुणों का विकास हो।
7. शैशवावस्था के अन्तिम चरण में शिशु दूसरे बालकों के साथ मिलना-जुलना और खेलना पसन्द करता है। उसे इन बातों का अवसर दिया जाना चाहिए, ताकि उसमें सामाजिक भावना का विकास हो ।
3. शैशवावस्था में शिशु में अपने प्रदर्शन की भावना होती है। अत: उसे ऐसे कार्य करने के अवसर दिये जाने चाहिए, जिसके द्वारा वह अपनी इस भावना को व्यक्त कर सके।
9. शैशवावस्था में शिशु में मानसिक क्रियाओं की तीव्रता होती है अत: उसे सोचने-विचारने के अधिक से अघिक अवसर दिये जाने चाहिए।
10. शैशवावस्था में शिशु के माता-पिता और शिक्षक को उसे सत्य बोलने, बडों का आदर करने, समय पर काम करने और अन्य अच्छी आदतों का निर्माण करना चाहिए।
11. शैशवावस्था में शिशु के व्यवहार का आधार उसकी मूल प्रवृत्तियां होती हैं। अत: उनका दमन न करके सम्भव तरीकों से प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
12. बालक कुछ मूल प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है, जो उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। अत: उसे उनके अनुसार कार्य करके सीखने देने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।
13. शैशवावस्था में शिशु को खेल द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका कारण बताते हुए स्ट्रेंग का कहना है कि- “शिशु अपने और अपने संसार के बारे में अधिकांश बातें खेल द्वारा सीखता है”।
14. शैशवावस्था में शिशु की शिक्षा में कहानियों और सचित्र पुस्तकों को विशेष महत्व दिया जाना चाहिए। एक से पांच वर्ष का शिशु कहानी सुनते समय उससे संबंधित चित्रों को पुस्तक में देखना पसन्द करता है।
15. शिशु की ज्ञानेन्द्रियों और कमेंद्रियों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। बालक के हाथ, पैर और नेत्र उसके प्रारंभिक शिक्षक हैं। इन्हीं के द्वारा वह पांच वर्ष में ही पहचान सकता है, सोच सकता है और याद कर सकता है।
बाल्यावस्था :-
बाल्यावस्था, वास्तव में मानव जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें उसका सर्वांगीण विकास होता है। फ्रायड यद्यपि यह मानते हैं कि बालक का विकास 5 वर्ष की आयु तक हो जाता है, लेकिन बाल्यावस्था विकास की प्रकिया को गति गति देती है, और एक परिपक्व व्यक्ति के निर्माण की ओर अग्रसर होती है।
शैशवावस्था के बाद बाल्यावास्था का आरम्भ होता है। बाल्यावास्था में बालक के व्यक्तित्व निर्माण होता है। बाल्यावास्था में विभिन्न आदतों, व्यवहार, रूचि एवं इच्छाओं का निर्माण होता है। इस अवस्था में बालक में कई तरह के परिवर्तन होए हैं। 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव वहुत उग्र होता है। 7 वर्ष की आयु में वह उदासीन होता है और अकले रहना पसन्द करता है। 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों के साथ सामाजिक सम्बंध स्थापित करने की भावना वहुत प्रबल होती है। 0 से 12 वर्ष तक की आयु में बालक में विद्यालय के प्रति उसका कोई आकर्षण नहीं रहता है।
बाल्यावस्था की विशेषतायें :-
1. विकास में स्थिरता :-
6 से 7 वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। वह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमता को मजबूती प्रदान करती हैं। फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है।
2. मानसिक योग्यताओं में वृद्वि :-
बाल्यावस्था में बालक की मानसिक क्षमता में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है।
3. जिज्ञासा की प्रबलता :-
बाल्यावस्था में बालक की जिज्ञासा बिशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है।
4. वास्तविक ज्ञान का विकास :-
बाल्यावस्था में बालक शैशवावस्था के काल्पनिक जीवन को छोड़कर वास्तविक दुनिया में प्रवेश करता है। वह दुनिया की प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसके बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।
5. रचनात्मक कार्यों में रूचि :-
बाल्यावस्था में बालक को रचनात्मक कार्यो में बहुत आनन्द आता है। वह साघारणत: घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है।
6. सहयोग की भावना :-
बाल्यावस्था में बालक विद्यालय के छात्रों और अपने दोस्तों के समूह के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। बाल्यावस्था में बालक में अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे- सहयोग, सदभावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि।
7. नैतिक गुणों का विकास :-
बाल्यावस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। बालक में न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की समझ का विकास होने लगता है।
8. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का निर्माण :-
शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है, और बाल्यावस्था में बाहरी दुनिया में उसकी रुचि बढ़ जाती है और उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी हो जाता है।
9. संवेगों पर नियंत्रण :-
बाल्यावस्था में बालक अपने संवेगों पर अघिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता हैं। वह ऐसी भावनाओं को छोड़ देता है, जिसके बारे में उसके माता-पिता, शिक्षक और बड़े लोग बुरा बताते हैं।
10. संग्रहीकरण की प्रवृत्ति :-
बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं उनको अनोखी लगने वाली चीजों का संग्रह करने की प्रवृत्ति आ जाती है। बाल्यावस्था में बालक बिशेष रूप से कांच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थरो के टुकडों का संचय करना पसंद करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुडियों और कपडों के टुकडों का संग्रह करने की रुचि पाई जाती है।
11. बाल्यावस्था में बालकों में बिना किसी उददेश्य के इधर-उधर घूमने की लालसा वहुत अघिक होती है। बाल्यावस्था में बालक में विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती हैं।
12. प्रवृत्ति :-
बाल्यावस्था में बालक में काम प्रवृत्ति की भावना न के बराबर होती है। बाल्यावस्था में बालक अपना समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने और पढने-लिखने आदि कार्यों में व्यतीत करता है।
13. सामूहिक प्रवृत्ति :-
बाल्यावस्था में बालक की सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दोस्तों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है। बालक की सामूहिक खेलों में अत्याधिक रूचि होती है। वह 6 या 7 वर्ष आयु में छोटे समूहों में खेलता है।
14. रूचियों में परिवर्तन :-
बाल्यावस्था में बालक के रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। बालक की रुचियाँ वातावरण के साथ बदलती रहती हैं।
बाल्यावस्था का महत्व :-
● बाल्यावस्था का काल 6 से 12 वर्ष माना जाता है। इस अवस्था में बालकों तथा बालिकाओं के शरीर में कई तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं की लंबाई, वजन आदि में परिवर्तन होते हैं।
● बाल्यावस्था में हड्डियों में मजबूती तथा दृढता आती है, बाल्यावस्था दांतों में स्थाई पन आने लगता है। बाल्यावस्था में मानसिक विकास भी तीव्र होती है। बाल्यावस्था बालक अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए तरह-तरह के और प्रश्न।
● बाल्यावस्था में बालक के अंदर सूक्ष्म चिंतन की शुरुआत हो जाती है। बाल्यावस्था तक बालक विद्यालय में प्रवेश ले चुका होता है, बाल्यावस्था में बालक में परिवार के साथ-साथ अन्य लोगों के साथ भी उसकी सामाजीकरण प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है। बाल्यावस्था में विपरीत लिंगों के प्रति आकर्षण का भाव आने लगता है।
● बाल्यावस्था में बालकों के शब्दकोश में भी बहुत वृद्धि होती है। बाल्यावस्था में बालकों के अंदर आत्मनिर्भरता की सोच विकसित होने लगती है, और उनकी आदतों, रूचियों, मनोवृन्ति और रहन-सहन आदि में पर्याप्त अंतर दिखाई देने लगता है।
बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप :-
बाल्यावस्था शिक्षा के लिए एक बहुत ही उपयोगी अवस्था है। ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन नेे बाल्यावस्था के बारे में बताया है कि
“बाल्यावस्था वह समय है, जव व्यक्ति दो आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है।”
ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन
● बाल्यावस्था के बारे में स्ट्रेंग ने कहा कि “इस अवस्था में बालको की भाषा में बहुत रूचि होती है।” इसलिए बाल्यावस्था में बालक की भाषा को अधिक से अधिक बड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए
● बाल्यावस्था में बालकों की रुचियों में परिवर्तन आता रहता है, इसलिए उसकी पुस्तकों के विषय में रोचकता और विभिन्नता होनी चाहिए।
● बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिससे बालक की सभी जिज्ञासाओं का उत्तर उसे मिल सके।
● बाल्यावस्था में बालक एवं बालिकाओं को सामूहिक कारण और मिल जुल कर रहना ज्यादा पसंद होता है। इसलिए विद्यालय में सामूहिक कार्यक्रम और खेलों का आयोजन कराना चाहिए।
● बाल्यावस्था में बालक एवं बालिकाओं की रचनात्मक गुणों को निखारने के लिए रचनात्मक कार्यों की प्रतियोगिता और व्यवस्था करनी चाहिए।
● बाल्यावस्था में बालकों में घूमने की तीव्र प्रवृत्ति होती है इसलिए विद्यालयों को पर्यटन और स्काउटिंग का कार्यक्रम भी करवाना चाहिए।
किशोरावस्था :-
मानव जीवन के विकास की प्रकिया में किशोरावस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था प्रारम्भ होती है, और युवावस्था या प्रौढावस्था से पहले समाप्त होती है। किशोरावस्था को बाल्यावस्था और युवावस्था या प्रौढावस्था के मध्य का सन्धि काल कहते भी कहा जाता है।
किशोरावस्था की विशेषताएं :-
1. विकासात्मक विशेषता :-
किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। किशोरावस्था में किशोर के शरीर में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्त्तन होते है, जैसे-वजन और लम्बाई में तेजी से बृद्धि, मांसपेशियों और शारीरिक ढाँचे में दृढता। किशोरावस्था में किशोर में दाढी और पूंछे के रोएं आना शुरू हो जाता है, और किशोरियों में मासिक धर्म की शुरुआत होती है।
2. कल्पना की बाहुल्यता :-
किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं के मस्तिष्क का सभी दिशाओं में विकास होता है। किशोरावस्था में ही बालक एवं बालिकाओं में अपने सपनों में ही खोये रहनी की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, और सोचने समझने और तर्क करने की शक्ति में भी वृद्धि होती है। किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं के बहुत सारे मित्र होते हैं, लेकिन वह केवल एक या दो लोगों से ही घनिष्ठ मित्रता रखना ज्यादा पसंद करते हैं।
3. संवेगों में अस्थिरता :-
किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में आवेगों और संवेगों की बहुत प्रबलता होती है। इसलिए वह विभिन्न अवसरों पर विभिन्ग प्रकार का व्यवहार करतें हैं।
किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन भी कहा है, क्योकि किशोर इस अवस्था में किशोरों के बहुत से व्यवहार एक शिशु की तरह होते हैं। किशोरावस्था में किशोरों में इतनी उद्विग्नता या व्याकुलता होती है, कि वह एक शिशु के समान अन्य व्यक्तियों और वातावरण से समायोजन नहीं कर पाता है।
4. स्वतंत्रता की भावना :-
किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता की भावना बहुत प्रबल होती है। किशोरावस्था में किशोरों मैं बड़ों की आज्ञा मानकर स्वतंत्रत तरीके से काम करने की प्रवृत्ति होती है। किशोरावस्था में यदि किशोरों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया जाता है, तो उनमें विद्रोह की भावना भी उत्पन्न होने लगती है।
5. काम भावना में परिपक्वता :-
किशोरावस्था में कमेंद्रियों की परिपक्वता की और कामशक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। किशोरावस्था से पहले की अवस्था अर्थात बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में विषम लिंगों के प्रति आकर्षण होता है।
6. समूह का महत्व :-
किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में समूह की महत्वपूर्णता बहुत बड़ जाती है। किशोरावस्था वे अपने समूह को अपने परिवार और विद्यालय से अघिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
7. रूचियों में परिवर्तन :-
15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रूचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, लेकिन उसके बाद उनकी रूचियों में धीरे-धीरे स्थिरता आने लगती थी। बालकों को मुख्य रूप से खेलकूद और व्यायाम में विशेष रूचि होती है। वहीं इसके विपरीत बालिकाओं में कढाई-बुनाई, नाच, गाने के प्रति ज्यादा आकर्षण रहता है।
8. समाजसेवा की भावना :-
किशोरावस्था में किशोर में समाज सेवा की तीव्र भावना होती है। किशोरावस्था की शुरूआत में बालकों और बालिकाओं में अपने धर्म और ईश्वर में ज्यादा आस्था नहीं होती है, लेकिन धीरे-धीरे उनमें अपने धर्म के प्रति विश्वास उत्पन्न होने लगता है।
9. जीवन दर्शन का निर्माण :-
किशोरावस्था के पहले बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में तरह-तरह के प्रश्न पूछता है। लेकिन किशोरावस्था में आने पर वह इन सब बातों पर खुद ही सोंच-विचार करने लगता है। किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं में अपनी इच्छा, महत्वकांक्षा, निराशा, असफलता, प्रतिस्पर्धा, प्रेम में असफलता आदि कारणों से अपराध की प्रवृत्ति भी उत्पन्न होने लगती है।
10. व्यवसाय, नौकरी और भविष्य के प्रति चिंता :-
किशोरावस्था में किशोर और किशोरियों में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और किसी अच्छे स्थान पर पहुंचने की तीव्र इच्छा होती है। किशोरावस्था में किशोर अपने भविष्य और अपने आगे के जीवन की दिशा चुनने की भी चिंता रहती है।
किशोरावस्था का महत्व :-
किशोरावस्था जीवन का वह समय है, जहा से एक अपरिपक्व व्यक्ति का शारीरिक व मानसिक विकास एक चरम सीमा की ओर आगे बढ़ता है। शारीरिक रूप से एक बालक तब किशोर बनता है उसमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता की शुरुआत होती है। यह अवस्था 12-13 से 18 वर्ष की आयु तक मानी जाती है। किशोरावस्था के आरंभ होने की आयु लिंग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति एवं स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। भारत में यह अवस्था औसतन 12 वर्ष से ही शुरू हो जाती है। किशोरावस्था का जीवन में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योकि अवस्था में किशोर के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में जबरदस्त परिवर्तन होते हैं। किशोरावस्था के संदर्भ में स्टेलनले हॉल ने कहा कि-
“किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।”
स्टेलनले हॉल
किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप :-
किशोरावस्था जीवन की प्रमुख अवस्था है, इस अवस्था से किशोरों का आगे का जीवन निर्माण होता है, इसलिए किशोरावस्था में माता-पिता और अभिभावकों के साथ-साथ शिक्षा के स्वरूप का भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिसके बारे में हमने नीचे विस्तार से बताया है :-
● किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हौते है, जिनके बारे में किशोरों और किशोरियों को उचित जानकारी होना बहुत आवश्यक है, सही शिक्षा के माध्यम से हम किशोरों और किशोरियों के शरीर को सबल और सुडौल बना सकते हैं, इसके लिए विद्यालय को शारीरिक और स्वास्थ्य शिक्षा, विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम और विभिन्न प्रकार के खेलकूद आदि का आयोजन करना चाहिए।
● किशोर की मानसिक ऊर्जा का सर्वोत्सम और अधिकतम विकास करने क लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रूचियों, रूझानों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए।
● विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिससे किशोरावस्था में किशोरों का अच्छा सामाजिक व्यवहार और सम्बधों की कला सीख सकें।
● किशोर अपने आने वाले जीवन के लिए किसी न किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है, पर वह यह नहीं जानता है कि कौन सा व्यवसाय उसके लिए सबसे सर्वोत्तम होगा। विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए।
● किशोरावस्था में बालक एवं बालिकाओं के दिमाग में कई तरह की विरोधी गतिविधियां चलती रहती हैं। विद्यालय में किशोरावस्था में छात्रों को उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अन्तर कर सकें और अपने व्यवहार को समाज कै नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सकें।
● किशोर बालकों और बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का सम्बंध उनकी काम-प्रवृत्ति से होता है। यौन शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है।
● बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी अति आवश्यक है। “लिंग भेद के कारण और इस बिचार से कि बालकों और बालिकाओं के भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठयक्रमों में बिभिन्नता होनी चाहिए।”
● किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए, इसलिए उनके पाठ्यक्रमों को इसके अनुकूल बनाना चाहिए।
● किशोर को न तो बालक समझना चाहिए और न उसके प्रति बालक का सा व्यवहार करना चाहिए, किशोरों से मित्रवत और वयस्कों जैसा व्यवहार करना चाहिए।
● किशोर में उचित महत्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है, जिसको प्राप्त करने की दिशा कभी-कभी किशोरों को गलत रास्ते में ढ़केल देती है। विद्यालय को उनकी उपयोगिता का अनुभव करना चाहिए और उसकी निराशा को दूर करने का उपाय करके उसकी अपराध प्रवृत्ति को कम करना चाहिए।
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