इस पोस्ट में बाल विकास के सिद्धांतों को बताया गया है। बाल विकास के सिद्धांत के साथ-साथ बाल विकास का उद्देश, बाल विकास का महत्व, आवश्यकता एवं महत्व के बारे में बताया है। इस विषय मे सीटेट और यूपीटेट जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में प्रश्न पूंछे जाते हैं। यहाँ पर हमने बाल विकास के निम्नलिखित सिद्धान्तों के बारे में बताया है-
- बाल विकास में शरीर के अंगो के विकास में भिन्नता का सिद्धांत
- विकास में व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त
- निरन्तरता या सतत विकास का सिद्धांत
- विकास की दिशा का सिद्धांत
- परस्पर सम्बन्ध या सहसम्बन्ध का सिद्धांत
- सामान्य से विशिष्ट के विकास का सिद्धांत
- बाल विकास के एकीकरण का सिद्धांत
- समान प्रतिमान का सिद्धांत
● बाल विकास में सदैव प्रगतिशील क्रियाओं का समावेश किया जाता है। बाल विकास के सिद्धातों में महत्वपूर्ण लक्ष्यों और क्रियाओं को प्रमुख स्थान दिया जाता है।
● बाल विकास के सिद्धांत बालकों के विकास को आधुनिक बनाने का प्रयास सकते हैं। विकास की प्रक्रिया प्राकृतिक, सरल एवं स्वाभाविक विकास के सिद्धान्तो पर आधारित होती है।
● विकास की प्रक्रिया किसी एक स्थान पर सम्पन्न न होकर मानव ज्ञान की सभी शाखाओं का एक व्यवस्थित दृष्टिकोण के रूप में सम्पन्न होती है, अत: विकास के सिद्धांत सार्वभौमिकता के सिद्धान्त का भी पालन करता है।
● बाल विकास में अनुक्रिया के सिद्धान्त का पालन किया जाता है।
शरीर के अंगो के विकास में भिन्नता का सिद्धांत :-
बाल विकास और विकास दोनों ही प्रक्रियाओं में शरीर के विभिन्न प्रकार के अंगों में विकास की गति एक समान नहीं होती है किसी अंग का विकास बहुत तेजी से और पहले हो जाता है और किसी अंग का विकास धीमे-धीमे और देरी से होता है। जैसे मनुष्य के मस्तिष्क का विकास जल्दी होता है और बाकी अंगों का विकास धीरे और देर तक होता है।
व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त :-
● बाल विकास के सिद्धांत में व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त कार्य करता है। बाल विकास के अंतर्गत सभी प्रकार के बालकों का ध्यान रखा जाता है क्योंकि जरूरी नहीं है कि सभी बालक में विकास एक समान हो। प्रत्येक बालक में विकास और नई चीजों को सीखने की गति अलग-अलग हो सकती है। हाँ लेकिन ध्यान रखें कि उनका क्रम एक समान ही रहता है जिसे समान प्रतिमान का सिद्धांत कहते हैं। इसके बारे में हमने नीचे विस्तार से लिखा है।
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निरन्तरता या सतत विकास का सिद्धांत :-
● विकास की प्रक्रिया ज़न्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तरता के सिद्धान्त का पालन करती है, बाल विकास शब्द भले ही गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक के लिए इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन बाल विकास की प्रक्रिया भी विकास की प्रक्रिया की ही तरह निरन्तरता या सततता के सिद्धान्त का पालन करती है। दूसरे शब्दों में बाल विकास गर्भावस्था से युवास्था तक निरंतर जारी रहती है।
● मतलब बाल विकास और विकास में किसी चीज का विकास तुरंत नही हो जाता यह एक सतत और निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। विकास की गति कुछ भी हो चाहे धीमी या तेज लेकिन विकास कभी रुकता नही है। यह हमेशा जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर चलता रहता है, और यही नियम बाल विकास में भी लागू होता है।
● जैसे बच्चे में हाथ, पैर आदि अंगों का निर्माण तुरंत नहीं हो जाता है, ये गर्भावस्था में ही इसका निर्माण चालू हो जाता है और निरंतर चलता रहता है, आप यहाँ वृद्धि और विकास में भ्रमित न हों दोनों अलग-अलग चीजें हैं।
विकास की दिशा का सिद्धांत :-
● विकास की दिशा का सिद्धांत जिसमें बालक के विकास की प्रक्रिया सिर से पैर की ओर विकास क्रम के सिद्धांत का पालन करती है। इसमें विकास सिर से पैर की होता है। मतलब बच्चा के सिर का विकास पहले होता है और पैर बाद में विकसित होते हैं। जैसे जन्म के बाद बच्चा पहले सिर हिलाने डुलाने की कोशिश करता है, फिर थोड़े दिनों में वह बैठने की कोशिश करता है और बाद में पैरों का इस्तेमाल करके चलने और खड़े होने की कोशिश करता है।
परस्पर सम्बन्ध या सहसम्बन्ध का सिद्धांत :-
● बाल विकास परस्पर सम्बन्ध या सहसंबंध के सिद्धांतों का पालन करता है, इसका मतलब है कि बाल विकास के गुण परस्पर एक दूसरे से जुड़े होतें हैं, और एक गुण के विकसित होने की गति तेज या धीमे होने का प्रभाव दूसरे अन्य गुणों के विकसित होने की गति में भी पड़ता है।
सामान्य से विशिष्ट के विकास का सिद्धांत :-
● बाल विकास सामान्य से विशिष्ट के विकास का सिद्धांत का पालन करता है, मतलब पहले बालक किसी चीज की सामान्य जानकारी प्राप्त करता है और उसके बाद उसकी विशिष्ट जानकारी प्राप्त करता है, उदाहरण के लिए –
जैसे पहले बच्चा सभी प्रकार के खाने की चीजों को एक समान मानता है, उसके बाद बच्चे को उन चीजों के बारे में धीरे-धीरे अधिक जानकारी होती है।
बाल विकास के एकीकरण का सिद्धांत :-
● इस सिद्धांत के अनुसार बालक अपने अंगो को पूरा एक साथ चलता है, उसके बाद बच्चा धीरे-धीरे बाद उसके अंग को जिसको वह पहले एक साथ प्रयोग कर रहा था, अब उसके किसी एक भाग को भी चलाने, हिलाने-डुलाने या उस अंग का उपयोग करना सीखता है। उदाहरण के लिए-
जैसे बच्चा पहले अपने हाथ या पैर को एक साथ हिलाता डुलता है, अभी उसे अपने हाथों की कलाई और उंगलियों के बारे में नही पता कि उसका उपयोग कैसे करना है। फिर बच्चा धीरे-धीरे हाथों की उंगलियां का उपयोग करना कलाई का उपयोग करना सीखना है, इसे ही विकास का एकीकरण का सिद्धांत कहा जाता है।
समान प्रतिमान का सिद्धांत :-
● बाल विकास समान प्रतिमान के सिद्धांतों का पालन करता है। समान प्रतिमान के सिद्धान्तों के अनुसार एक तरह के जीवों में विकास का क्रम एक समान होता है। गेसेल ने इस सिद्धांत का समर्थन करते हुए कहा है की –
“भले ही दो इंसान एक जैसे नहीं होते लेकिन सभी सामान्य बच्चों के विकास का क्रम एक समान होता है, चाहे वे दुनिया में कहीं भी रहते हों “
गेसेल (सामान प्रतिमान सिद्धांत के लिए)
हरलॉक ने भी गेसेल के विकास के लिए सामान प्रीतिमान के कथन का समर्थन किया था।
● बाल विकास के सामान प्रतिमान सिद्धांत को आप इस तरह समझ सकते हैं, कि भले ही एक बच्चे का जन्म भारत में हुआ हो और दूसरे बच्चे का जन्म अमेरिका में हुआ हो लेकिन दोनों बच्चों में विकास का क्रम एक समान ही होगा।
वातावरण और वंशानुक्रम के सिद्धांत :-
कई शोधों से पता चला है कि बालक के विकास में वंशानुक्रम, परिवार के मौहाल और सामाजिक वातावरण का भी प्रभाव भी बाल विकास की प्रक्रिया में अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है
बाल विकास के सिद्धान्त के उद्देश्य, आवश्यकता एवं महत्व :-
● बाल विकास की प्रक्रिया में शिक्षक द्वारा छात्रों के विकास में बाल विकास के सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है जिसके आधार पर प्रत्येक छात्र का सर्वांगीण विकास किया जाता है।
● बाल बिकास की प्रक्रिया में अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों का सर्वांगीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है।
● विद्यालय में बच्चों के विकास को ध्यान में रखकर बाल विकास के सिद्धांतों के आधार पर विद्यालय में विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का आयोजन किया जाता है।
● बाल विकास के सिद्धान्तो का प्रमुख उद्देश्य बच्चों का सर्वांगीण विकास करना है।
● बाल बिकास के सिद्धांतों के आधार पर ही अभिभावक अपने बालकों को उनके विकास में सहायता करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाते हैं।
● बाल विकास के सिद्धांतों के आधार पर ही शिक्षक, अभिभावक, प्रधानाध्यापक एवं विद्यालय प्रबंधन समिति की सयुक्त भूमिका द्वारा छात्रों का सर्वांगीण विकास किया जाता है।
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